खजुराहो। विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थली खजुराहो में दीपावली के दूसरे दिन होने वाले बुंदेलखंड के पारंपरिक नृत्य दीवारी की धूम पूरे दिन बनी रही। यहां पूरे बुंदेलखंड से दिवारी नृत्य की टोलियां अलग-अलग दीवाली नृत्य समूह मतंगेश्वर महादेव मंदिर के सामने अपनी प्रस्तुतियां देते नजर आये। इसी दौरान इटली से आई पर्यटक लोगों को नृत्य करते देख अपने आपको रोक नहीं सकीं और जमकर टोलियों के साथ जमकर नृत्य किया।
मध्यप्रदेश के बुंदुलेखंड की मिट्टी में अभी भी पुरातन परम्पराओं की महक रची बसी है। बुन्देलखण्ड की दिवारी समूचे देश में अनूठी है। इसमें गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण, संवद्धन, पालन के संकल्प का इस दिन कठिन व्रत लिया जाता है। पौराणिक किवदंतियों से जुड़ी धार्मिक पवरम्पराओं के परिवेश में पूरे बुन्देलखण्ड में दीमालिका पर्व पर दीवारी गायन-नृत्य और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखती ही बनती है। यहां दीवाली के मौके पर मौन चराने वाले "मौनिया" ही सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र होते हैं।
मौन चराने वाले मौनियों के अनुसार द्वापर युग से प्रचलित इस परम्परा के अनुसार विपत्तियों को दूर करने के लिए ग्वाले मौन चराने का कठिन व्रत रखते हैं। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता है। तेरहवें वर्ष में मथुरा व वृंदावन जाकर मौन चराना पड़ता है, वहां यमुना नदी के तट पर बसे विश्राम घाट में पूजन का व्रत तोड़ना पड़ता है। शुरुआत में पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है।
मध्यप्रदेश के बुंदुलेखंड की मिट्टी में अभी भी पुरातन परम्पराओं की महक रची बसी है। बुन्देलखण्ड की दिवारी समूचे देश में अनूठी है। इसमें गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण, संवद्धन, पालन के संकल्प का इस दिन कठिन व्रत लिया जाता है। पौराणिक किवदंतियों से जुड़ी धार्मिक पवरम्पराओं के परिवेश में पूरे बुन्देलखण्ड में दीमालिका पर्व पर दीवारी गायन-नृत्य और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखती ही बनती है। यहां दीवाली के मौके पर मौन चराने वाले "मौनिया" ही सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र होते हैं।
मौन चराने वाले मौनियों के अनुसार द्वापर युग से प्रचलित इस परम्परा के अनुसार विपत्तियों को दूर करने के लिए ग्वाले मौन चराने का कठिन व्रत रखते हैं। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता है। तेरहवें वर्ष में मथुरा व वृंदावन जाकर मौन चराना पड़ता है, वहां यमुना नदी के तट पर बसे विश्राम घाट में पूजन का व्रत तोड़ना पड़ता है। शुरुआत में पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है।
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