ब्रह्म-सुत्त
“भिक्खुओ! जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है; वे घर ब्रह्ममय हैं। भिक्खुओ!
जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है, वे घर पूर्वाचार्यमय होते हैं। भिक्खुओ!
जिन-जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है, वे घर देवता-मय होते हैं। भिक्खुओ!
जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है, वे घर आतिथ्य-मय होते हैं। मिक्खुओ ! ब्रह्मा
कहते हैं माता-पिता को, भिक्खुओ! पूर्वाचार्य कहते हैं माता-पिता को, भिक्खुओ, देवता
कहते हैं माता-पिता को; भिक्खुओ! अतिथि कहते हैं माता-पिता को। सो यह
किसलिए ? भिक्खुओ! माता-पिता अपनी संतान के जनक होते हैं, पोषण करने वाले
हैं तथा यह लोक दिखाने वाले होते हैं।”
“ब्रह्माति मातापितरो, पुब्बाचरियाति वुच्चरे,
अहुनेय्या च पुत्तानं, पजाय अनुकम्पका ॥
(माता-पिता ही ब्रह्मा” कहलाते हैं; माता-पिता ही 'पर्वाचार्य' कहलाते हैं। माता-पिता
अपनी संतान से आतिथ्य के अधिकारी होते हैं। वे अपनी संतान पर दया करने वाले होते
हैं। इसलिए जो बुद्धिमान है; उसे चाहिए कि उन्हें नमस्कार करे, उनका सत्कार करें॥)
“तस्मा हि ने नमस्सेय्य, सक्करेय्य च पण्डितो।
अन्नेन अथ पानेन, वत्थेन सयनेन च।
उच्छादने(न) नहापनेन, पादानं धोवनेन च ॥
“ताय नं पारिचरियाय, मातापितूसु पण्डिता।
इधेव न॑ पसंसन्ति, पेच्च सग्गे पमोदती”ति ॥ ततियं।
जो पण्डित जन अन्न (भोजन) पेय-पदार्थों: वस्त्रों तथा शयनासन; ओढ़ने, नहलाने
तथा पावों के धोने के द्वारा माता-पिता की सेवा करते हैं; उनकी इस लोक में प्रशंसा होती है
और परलोक जाने पर स्वर्ग में आनन्दित होते हैं॥
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“भिक्खुओ! जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है; वे घर ब्रह्ममय हैं। भिक्खुओ!
जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है, वे घर पूर्वाचार्यमय होते हैं। भिक्खुओ!
जिन-जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है, वे घर देवता-मय होते हैं। भिक्खुओ!
जिन घरों में माता-पिता की पूजा होती है, वे घर आतिथ्य-मय होते हैं। मिक्खुओ ! ब्रह्मा
कहते हैं माता-पिता को, भिक्खुओ! पूर्वाचार्य कहते हैं माता-पिता को, भिक्खुओ, देवता
कहते हैं माता-पिता को; भिक्खुओ! अतिथि कहते हैं माता-पिता को। सो यह
किसलिए ? भिक्खुओ! माता-पिता अपनी संतान के जनक होते हैं, पोषण करने वाले
हैं तथा यह लोक दिखाने वाले होते हैं।”
“ब्रह्माति मातापितरो, पुब्बाचरियाति वुच्चरे,
अहुनेय्या च पुत्तानं, पजाय अनुकम्पका ॥
(माता-पिता ही ब्रह्मा” कहलाते हैं; माता-पिता ही 'पर्वाचार्य' कहलाते हैं। माता-पिता
अपनी संतान से आतिथ्य के अधिकारी होते हैं। वे अपनी संतान पर दया करने वाले होते
हैं। इसलिए जो बुद्धिमान है; उसे चाहिए कि उन्हें नमस्कार करे, उनका सत्कार करें॥)
“तस्मा हि ने नमस्सेय्य, सक्करेय्य च पण्डितो।
अन्नेन अथ पानेन, वत्थेन सयनेन च।
उच्छादने(न) नहापनेन, पादानं धोवनेन च ॥
“ताय नं पारिचरियाय, मातापितूसु पण्डिता।
इधेव न॑ पसंसन्ति, पेच्च सग्गे पमोदती”ति ॥ ततियं।
जो पण्डित जन अन्न (भोजन) पेय-पदार्थों: वस्त्रों तथा शयनासन; ओढ़ने, नहलाने
तथा पावों के धोने के द्वारा माता-पिता की सेवा करते हैं; उनकी इस लोक में प्रशंसा होती है
और परलोक जाने पर स्वर्ग में आनन्दित होते हैं॥
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