कैकयी के दो वरदान की वजह से राम को जाना पड़ा वनवास

  • 5 years ago
मैं कैकयी। कैकय राज्य के महाराज अश्वपति की पुत्री। अश्वों पर जितना अधिकार पिताजी को है उतना संसार में किसी को नहीं। पिता का ये पराक्रम और अश्वों के बारे में ज्ञान मुझे विरासत में मिला। पिता को अपने राज्य और प्रजा से सबसे ज्यादा प्रेम था, फिर दूसरा मुझसे। इसी कारण कैकय के नाम पर ही उन्होंने मेरा नाम रखा कैकयी। मैंने पुत्री होते हुए भी राजमहल के झूलों के स्थान पर रणभूमि को चुना। चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जब पिता से मिलने राजमहल आए तो मुझे मांग लिया। 7 भाइयों की मैं एकलौती बहन और पिता को अत्यंत प्रिय थी। मैं उनकी दूसरी रानी के रुप में अयोध्या आ गई। देवासुर संग्राम में घायल महाराज दशरथ के प्राण मैंने अपने पराक्रम से बचाए। महाराज का सबसे अधिक स्नेह मुझ पर ही था। 

 

पुत्रों का विवाह हो गया। नई बहुओं के आने से राजमहल की रौनक बढ़ गई। राम मुझे भरत से अधिक प्रिय है। सीता मुझे प्राणों के समान लगती है। परंतु, विधि का लेखा कुछ और था। महाराज ने राम को राजा बनाने की घोषणा की। मैं प्रसन्न थी। दासियों को उपहार दे रही थी। नाच रही थी। मेरा राम राजा बनेगा। बचपन से मुझे पालने वाली मंथरा दुःखी थी। मैंने पूछा क्या तुम राम के राजा बनने से खुश नहीं हो मंथरा। वो बोली मेरे खुश होने या ना होने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन तुम्हें पड़ेगा। राम राजा बने तो राजमाता कौशल्या होंगी, तुम और तुम्हारा पुत्र दास-दासियों की तरह रहोगे। मैं ना मानती, लेकिन मंथरा ने कई तरह से बातें बनाकर मेरी बुद्धि हर ली। मैं कोप भवन में चली गई। महाराज आए तो मैंने महाराज पर बकाया मेरे दो वरदान मांग लिए। भरत को राज्य और राम को 14 साल का वनवास। 

 

मन में आशंका थी, राम विद्रोह कर देगा। महाराज नहीं मानेंगे। लेकिन, महाराज दशरथ बेसुध हो गए। राम को मैंने वरदान के बारे में बताया तो उसने सहज ही वनवास स्वीकार कर लिया। सीता और लक्ष्मण ने भी राम का ही अनुगमन किया। राम के जाते ही महाराज ने भी प्राण त्याग दिए। भगत कैकय में थे। अपने मामाओं के पास। उन्हें बुला भेजा। भरत के आने के पूर्व तक मैं मन ही मन प्रसन्न थी, भरत राजा बनेंगे और मैं राजमाता। लेकिन, भरत आए और सब बदल गया। उसे मेरे सामने आना भी गंवारा नहीं। राजपाठ नहीं लिया। चित्रकुट जाकर राम को लौटाने की तैयारी करने लगा। मैंने अपना सबकुछ खो दिया, पति, पुत्र और राम। 

 

राम को लौटाने के लिए पूरी अयोध्या चित्रकुट की ओर चल पड़ी। अपराधबोध में घिरी मैं भी। लेकिन राम नहीं लौटे। भरत भी हार गए। भरत ने राम की चरण पादुकाएं ले ली। कहा, राम नहीं तो कोई अयोध्या के राजसिंहासन पर नहीं बैठेगा। राम की चरण पादुकाएं ही राज करेंगी। पूरे अयोध्यावासियों में भरत के प्रति जितनी संवेदना और प्रेम था, उतना ही मेरे प्रति क्रोध। 

 

भरत अयोध्या छोड़कर सीमा पर बसे नंदगांव में बस गए। वहीं से अयोध्या का शासन चल रहा था। मैंने राम के लिए वनवास मांगा था लेकिन भरत ने उस वनवास को खुद पर ओढ़ लिया। संन्यासियों के वस्त्र, भोजन और आसन सब वैसा ही जैसा राम को मिला। शत्रुघ्न उनकी सेवा में था। 

 

जो अयोध्या कभी देवनगरी जैसी थी, अब वो उजड़ गई थी। कोई उत्सव नहीं मनता था। किसी के चेहरे पर हर्ष और उल्लास के भाव नहीं थे। भरत सिर्फ दिन गिनते थे, कब 14 वर्ष बीतेंगे। कब राम लौटेंगे। भरत ने हमेशा सबसे यही कहता है कि उसके कारण राम को वनवास हो गया, उससे अधिक भाग्यशाली लक्ष्मण है जो वन में भी राम की सेवा में है। राम के निकट है। राम के संरक्षण में है। लक्ष्मण से अधिक कोई भाग्यशाली इस समय पूरी पृथ्वी पर नहीं है। अहो लक्ष्मण, तुम्हारे पुण्यकर्म अवश्य ही बहुत अधिक हैं। सबसे अधिक।