उसे आकाश जैसा क्यों कहा गया है? || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2020)

  • 5 months ago
वीडियो जानकारी:
पार से उपहार शिविर, 15.02.20, ऋषिकेश, उत्तराखंड, भारत

प्रसंग:
अन्तर्हितश्च स्थिरजङ्गमेषु ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन।
व्याप्त्याऽव्यवच्छेदमसङ्गमात्मनो मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत्॥

भावार्थ: राजन, जितने भी घट-मठ पदार्थ हैं, चाहे वो चल हों, अचल हों, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिछिन्न है । वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं उनमें आत्मा रूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है । साधक को चाहिए कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंग रूप से देखे । वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है । इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिए ।
~अवधूत गीता (अध्याय १, श्लोक ४२)

~ आत्मा आकाशवत कैसे है?
~ आत्मा की अनंतता कैसे मिले?
~ अहम् की क्षुद्रता पर कैसे ध्यान दे?

संगीत: मिलिंद दाते
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