अपने गुरु सरूपचंद जी के स्वर्गवास के बाद दादा निहालचंद को सांसारिक मोह-माया से विरक्ति सी हो गई और ये सबकुछ छोड़कर मन की शांति की तलाश में निकल पड़े। रास्ते में इन्हें कुछ साधु मिले और ये उन्हीं के साथ मनीरामदास छावनी अयोध्या पहुँच गए। ये वहीं पर रहने लगे। इनके सदाचार, सेवा-भाव और गुरूभक्ति से प्रसन्न होकर वहाँ के महन्त जो उन दिनों काफी अस्वस्थ चल रहे थे, ने इनको अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। महन्त जी के परलोक गमन के उपरान्त जब दादा निहालचंद वहाँ के महन्त बने तो वहाँ पर रह रहे कुछ साधुओं में संतोष की भावना जागृत हो गई। इसको देखकर दादा निहालचंद ने महन्त के पद का परित्याग कर अपने स्थान पर वहाँ रहने वाले एक वरिष्ठ साधु को गद्दी सौंपकर उस स्थान को छोड़कर कम्पला(कांपिल्य) उत्तर प्रदेश नामक जगह पर एक आश्रम में चले गए। वास्तव में इनका उद्देश्य तो सांसारिक सुखों से विरक्ति एवं मानसिक शांति प्रदान करना था।
कुछ दिनों बाद बड़े भाई मलूक राम की तबीयत ज्यादा खराब होने के कारण उन्हे वापस अपने घर नांगल ठकरान (दिल्ली) आना पड़ा | घर पहुँचने पर उनके बड़े भाई का निधन हो गया और ना चाहते हुए भी उन्हे घर की जिम्मेवारी संभालनी पड़ी जिसे उन्होंने आजीवन निभाया | गाँव में भी उन्होंने अपने रहने के लिए एकांत एवं शांत स्थान का चुनाव किया | उन्होंने बहुत से सांगो, रागनियों, भजनों की रचना की |
भारत की आजादी के लिए भी उन्होंने अपनी रचनाओ के माध्यम से नौजवानों को खूब प्रेरित किया | उनकी रचनाओं मे आर्यसमाज की विचारधारा के साथ साथ ईश्वर भक्ति की झलक भी मिलती है |
फेर अंत समय मैं वैद्य डाक्टर घाट न घलै ,
दवा दारू करैं भतेरी पर पेश ना चलै ,
मियाद जो लगाई सांस की वो टाली ना टलै ,
हो पुतला भसम अग्नि मैं यो जीव ना जलै ,
कह निहाल चंद बाकी रह ज्या एक नाम नाम नाम
मान ज्या भजै नै मन राम राम राम ||
वे आजीवन ब्रह्मचार्य धर्म का पालन करते हुए ईश्वर भक्ति मे तल्लीन रहे और शायद यही कारण है कि आने वाली मृत्यु का उन्हे पहले ही पता चल गया था | चेहरे पर एक तेज के साथ गीता पाठ करते हुए और 24 फरवरी 1995 को 108 वर्ष की आयु मे वे इस नश्वर संसार को छोड़ कर परम शांति को प्राप्त हुए | वे अपने समकालीन कवियों, सांगियों और प्रचारियों के लिए प्रेरणाश्रोत थे | #पं._लखमीचंद जैसे उच्च कोटि के सांगी भी दादा निहाल चंद से काफी प्रेरणा पाते थे ( इसका उल्लेख इनसाइक्लोपीडिया आफ हिन्दुइज्म कोलम्बिया-यू़. एस.ए. में एन्टरी संख्या 04/442180 पर मिलता है )
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फेर अंत समय मैं वैद्य डाक्टर घाट न घलै ,
दवा दारू करैं भतेरी पर पेश ना चलै ,
मियाद जो लगाई सांस की वो टाली ना टलै ,
हो पुतला भसम अग्नि मैं यो जीव ना जलै ,
कह निहाल चंद बाकी रह ज्या एक नाम नाम नाम
मान ज्या भजै नै मन राम राम राम ||
वे आजीवन ब्रह्मचार्य धर्म का पालन करते हुए ईश्वर भक्ति मे तल्लीन रहे और शायद यही कारण है कि आने वाली मृत्यु का उन्हे पहले ही पता चल गया था | चेहरे पर एक तेज के साथ गीता पाठ करते हुए और 24 फरवरी 1995 को 108 वर्ष की आयु मे वे इस नश्वर संसार को छोड़ कर परम शांति को प्राप्त हुए | वे अपने समकालीन कवियों, सांगियों और प्रचारियों के लिए प्रेरणाश्रोत थे | #पं._लखमीचंद जैसे उच्च कोटि के सांगी भी दादा निहाल चंद से काफी प्रेरणा पाते थे ( इसका उल्लेख इनसाइक्लोपीडिया आफ हिन्दुइज्म कोलम्बिया-यू़. एस.ए. में एन्टरी संख्या 04/442180 पर मिलता है )
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