• 2 days ago
लाल सँग, खेलिय हिल मिल फाग |
चलु री सखी ! भव - निशा सिरानी, भई भोर गइ जाग |
केशर घोर भाव की गोरी !, पिचकारी अनुराग |
पानि तानि मारिय दृग - बानन, सहज पिया – रस - पाग |
रति – रस – रँग - सरबोरी गोरी, लखु अपुनो बड़भाग |
इमि *‘कृपालु’* करि उर – पट - बंदी, करु निज अमर सुहाग ||

*भावार्थ* - *( जीवरूपी सखी की ब्रह्म श्यामसुन्दर के साथ प्रेम होली )*
अरी जीव - रूपी सखी ! अब तो तेरी मायारूपी रात्रि बीत चुकी है एवं प्रात:काल हो चुका है तथा तू जाग भी गई है | अतएव चल ! श्यामसुन्दर के साथ दिव्य होली खेल आवें | देख सखी ! भाव रूपी केशर के रंग को अनुराग – रूपी पिचकारी में भरकर आँखों के कटाक्षरूपी हाथ से प्रियतम श्यामसुन्दर पर फेंकती हुई सहज ही प्रियतम के प्रेम में विभोर हो एवं उनके द्वारा भी रति - रस के रंग में सराबोर होकर परम भाग्यशालिनी बन जा |
*‘श्री कृपालु जी’* कहते हैं कि इस प्रकार श्यामसुन्दर को अपने हृदय में बंदी बनाकर सदा के लिए अपना सुहाग अमर कर ले |

🌹 *प्रेम रस मदिरा होरी – माधुरी*🌹

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