खंडहरों का शहर राजनगर - नौलखा।। RUINS OF RAJNAGAR - NAULAKHA ।।

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यह राजनगर है। खंडहरों का शहर राजनगर। खंडवाला राजवंश की आखिरी डयोढी राजनगर। तिरहुत राज्‍य का दूसरा सबसे धनी परगना बचौर (bachhaur) में नया टाउनशिप बनाया गया जिसका नाम रखा गया राजनगर। इस का निर्माण महाराजा महेश्वर सिंह के छोटे बेटे रामेश्वर सिंह के लिए कराया गया था। भारत नेपाल सीमा से सटे इस शहर को बसाने की योजना 1890 के आसपास बनी। वैसे 1901 के सर्वे में इस टाउनशिप का कोई उल्‍लेख नहीं मिलता है। ऐसे में लोगों का मत है कि जमीन पर यह टाउनशिप 1905 के आसपास ही दिखने को मिला था। वैसे इसका निर्माण कार्य 1926 तक चला। तिरहुत सरकार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने अपने छोटे भाई रामेश्वर सिंह के लिए महलों और मंदिरों से इस शहर को सजाने का फैसला किया। कहने को यह आज दरभंगा प्रमंडल और मधुबनी जिले का एक प्रखंड मुख्यालय मात्र है, लेकिन इसकी पहचान अपने आप में अलग है। भारत में सबसे पहले सीमेंट का प्रयोग राजनगर के भवन निर्माण में यही हुआ। जिस प्रकार दिल्‍ली को लूटियन से बनाया, उसी प्रकार राजनगर को ब्रिटिश वास्तुकार डॉ एम ए कोरनी ने मन से बनाया था। कहा जाता है कि कोरनी तिरहुत के कर्जदार थे और कर्ज चुकाने के बदले उन्‍होंने अपने हुनर को यहां ऐसे उकेरा कि वो वास्‍तुविदों के आदर्श बन गये। राजनगर राज का महल ही नहीं सचिवालय भी तिरहुत सरकार के किसी दूसरे इमारत से बडा है। साथ ही अदभुत वास्तुशिल्पी का नमूना है।
राजनगर के मुख्य महल में प्रवेश दुर्गा हॉल से होकर था जहाँ दुर्गा जी की सुन्दर मूर्ति थी, शानदार दरवार हॉल जिसकी नक्कासी देखते बनती थी। उससे सटे ड्राइंग रूम जिसमे मृग आसन उत्तर में गणेश भवन जो उनका अध्यदयन कक्ष था। महल का पुराना हिस्सा बड़ा कोठा कहलाता था, महल के बाहर सुन्दर उपवन सामने नदी और तालाब । शिव मंदिर जो दक्षिण भारतीय शैली का बना था, उसी तरह सूर्य मंदिर उत्कल शैली का है, सफ़ेद संगमरमर का काली मंदिर, जिसमे प्रतिस्थापित माँ श्यातमा की सबसे विशाल मूर्ति है। अर्धनारीश्वर मंदिर, राजराजेश्वरी मंदिर, गिरजा मंदिर जैसे करीब 11 मंदिर इस परिसर को किसी राजा से अधिक राजऋषि का दर्शाता है।
तंत्र साधना में काली का अंतिम रूप (शिव की छाती से उतर कमल के फूल पर मुस्कुराती काली) विश्व में केवल यहीं देखी जा सकती है। कहा जाता है कि महान तांत्रिक महाराजा रामेश्वर सिंह अपनी तंत्र साधना की पूर्णाहूति के बाद काली के इस अंतिम रूप को यहां स्थापित किया था। अमावस की रात मारवल जैसी चमक मां की इस मंदिर को ताजमहल से भी ज्‍यादा हसीन बना देती है। कहने को लक्ष्मीश्वर सिंह की मौत के बाद रामेश्वर सिंह राजनगर से दरभंगा चले गये, लेकिन दस्‍तावेज बताते हैं कि राजनगर को बसाने की प्रक्रिया 1926 तक चलती रही। निर्माण की प्रक्रिया खत्म होते ही 1934 के भूकंप ने इस पूरे शहर को तहस-नहस कर दिया। भकंप ने इस शहर को गुलजार होने से पहले ही खंडहर में बदल दिया। 15 जनवरी, 1934 के भूकंप का राजनगर ही केंद्र था। बाद में यह विरासत रामेश्वर सिंह के छोटे बेटे विशेश्वर सिंह को सौंपी गयी। विशेश्वर सिंह के तीनों बेटों ने इस डयोढी का बहुत सारा हिस्सा बेच डाला। नया शहर तो नहीं बसा, लेकिन कस्बा आज जरूर फैलता जा रहा है। विशेश्‍वर सिंह के पोते इन खंडहरों को बचाने की पहल करेंगे...बस यही दुआ है। क्‍योंकि 130 साल से अधिक पुराने इस महलों के प्रति जहां राज्‍य सरकार उदासीन है, वहीं केद्र सरकार को तो मानो पता भी नहीं है कि इस देश में कोई ऐसी जगह भी है। पर्यटन के किसी मानचित्र पर